चन्द्रिका प्रसाद तिवारी
भारत और चीन के बीच गंभीर रूप से बढ़ते सैन्य और राजनयिक तनाव के माहौल में दुनिया की दूसरी और पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच अलगाव की बातें की जाने लगी हैं।
भारत के कई विश्लेषक चीन से व्यापारिक रिश्ते तोड़ने की बातें कर रहे हैं और कैमरे के सामने कुछ भावुक नागरिक चीन में बने अपने सामान तोड़ते हुए दिखने लगे हैं। ऐसा लग रहा है कि अचानक से देश का 'दुश्मन नंबर एक' पाकिस्तान नहीं चीन बन गया है।
पूर्व विदेश सचिव और चीन में भारत की राजदूत रह चुकीं निरुपमा राव ट्वीट करके कहती हैं कि गलवान घाटी में हुई हिंसा भारत और चीन के रिश्तों में एक अहम मोड़ साबित हो सकती है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के 1988 में चीन के दौरे से दोनों देशों में रिश्तों का एक नया सिलसिला शुरू हुआ था। लेकिन निरुपमा राव के अनुसार अब इस पर फिर से गौर करने की जरूरत है।
लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर हुई हिंसा और इसमें 20 भारतीय सैनिकों की मौत के कारण मोदी सरकार चीन के खिलाफ कुछ करने के जबरदस्त दबाव में है। सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ ऐसे कदम उठाए जा रहे हैं, जिनसे दोनों देशों के बीच दूरियां बढ़ने लगी हैं।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार भारत सरकार ने आयात किए जाने वाले 300 ऐसे सामानों की सूची तैयार की है, जिन पर टैरिफ बढाए जाने पर विचार किया जा रहा है। चीन का नाम नहीं लिया गया है, लेकिन समझा ये जा रहा है कि चीनी आयात पर निर्भरता कम करने के लिए ये कदम उठाए जा रहे हैं।
उधर, कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआईटी) ने बहिष्कार किए जाने वाले 500 से अधिक चीनी उत्पादों की सूची जारी की है। व्यापारी संघ ने कहा कि उनका उद्देश्य दिसंबर 2021 तक चीनी तैयार माल के आयात को 13 अरब डॉलर या लगभग 1 लाख करोड़ रुपए कम करना है।
पिछले हफ्ते चीनी हैंडसेट निर्माता ओप्पो ने भारत में चीनी उत्पादों के बहिष्कार के आह्वान के बीच देश में अपने प्रमुख 5G स्मार्ट फोन की लॉन्चिंग को रद्द कर दिया था।
- रिश्ते टूटने से दोनों देशों को नुकसान
मुंबई में आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ रघुवीर मुखर्जी कहते हैं कि ये दुर्भाग्यपूर्ण है। चीन के साथ सीमा विवाद के मद्देनजर उठाए जाने वाले कदमों से भारत में फार्मा, मोबाइल फोन और सौर ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में अड़चनें पैदा हो सकती हैं।
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि आपसी दुश्मनी और टकराव में दोनों देशों को फायदा कम, नुकसान ज्यादा है, खास तौर से भारत को अधिक नुकसान हो सकता है। चीन में सिचुआन विश्वविद्यालय के चाइना सेंटर फॉर साउथ एशियन स्टडीज के कॉर्डिनेटर प्रोफेसर ह्वांग युंगसॉन्ग की दलील है कि ये एक गंभीर मुद्दा जरूर है लेकिन इसे सुलझाना मुश्किल नहीं है।
उन्होंने कहा कि हिमालय के दोनों तरफ होने वाले व्यापार को पूरी तरह से रोकने की वकालत करना गैर-जिम्मेदाराना बात है, खास तौर से ऐसे समय में जब दोनों तरफ के नेता स्थिति को शांत करने और इसे अधिक बिगड़ने से रोकने के लिए काफी प्रयास कर रहे हैं। वो आगे कहते हैं कि अगर भारत-चीन तनाव ने तूल पकड़ा तो दोनों देशों के अलावा दुनिया भर पर इसका बुरा असर होगा।
प्रोफ़ेसर ह्वांग युंगसॉन्ग कहते हैं कि ये त्रासदी (सरहद पर झड़प) अप्रत्याशित है और दोनों पक्षों को, अर्थव्यवस्था सहित अन्य मोर्चों पर, और नुकसान नहीं होने देना चाहिए. अन्यथा, न केवल विश्व अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान होगा, बल्कि दो प्राचीन एशियाई सभ्यताओं (भारत और चीन) का पुनरुद्धार भी बाधित हो सकता है। चीन और भारत के पास निश्चित रूप से इस झटके से बचने का ज्ञान और दृढ़ संकल्प ज़रूर होगा।
- ड्रैगन और एलीफैंट के बीच झगड़े में तीसरे पक्ष का फायदा
स्विट्ज़रलैंड में जिनेवा इंस्टिट्यूट ऑफ जिओपॉलिटिकल स्टडीज के शिक्षा निदेशक डॉक्टर अलेक्जेंडर लैंबर्ट चीन के मामलों के विशेषज्ञ हैं। भारत और चीन के बीच तनाव पर भारतीय मीडिया और नागरिकों में चीन के खिलाफ नाराजगी के बावजूद चीन को भारत का अमेरिका और पश्चिमी देशों से मजबूत दोस्त मानते हैं। वो कहते हैं कि दोनों देशों के बीच तनाव का फायदा दूसरे देश उठाने की कोशिश कर सकते हैं।
चीन के प्रोफेसर ह्वांग युंगसॉन्ग कहते हैं कि अगर भारत के चीन के साथ व्यापारिक संबंध बाधित होते हैं, तो संभावित लाभार्थी भारत और चीन के अलावा कोई भी देश हो सकता है। भौगोलिक रूप से कहें तो, अमरीका और उसके कुछ सहयोगी चीन और भारत को एक दूसरे के खिलाफ करने और भारत से दूरी देखकर खुश होंगे। आर्थिक रूप से, आसियान और विकसित देशों के उत्पादक भारतीय बाजार में चीनी सामानों के बजाए अपने सामान बेचने में रुचि दिखा सकते हैं, लेकिन शायद कम दक्षता या उच्च लागत पर।
डॉक्टर अलेक्जेंडर लैंबर्ट की भारत को सलाह ये है कि वो चीन को अपने अस्तित्व पर खतरा ना माने। वे कहते हैं कि भारत और चीन ऐसी स्थिति में नहीं हैं, जैसा कि एक सदी पहले ब्रिटेन और जर्मनी थे। और ये स्थिति पश्चिमी यूरोप के सोवियत संघ के प्रति डर से भी बहुत अलग है।
- वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत और चीन
चीन आज एक 'शांति से बढ़ती' शक्ति है, और ये सक्रिय रूप से राजनयिक और आर्थिक सहयोग की पेशकश करता है। इस अवसर को नहीं स्वीकार करने का मतलब है कि भविष्य की भारतीय पीढ़ी को दंडित करना।
इस समय भावनाओं से परे हट कर देखना मुश्किल है लेकिन अगर आप गौर करें तो समझ में आएगा कि एशिया के दोनों दिग्गजों की संयुक्त आर्थिक ताकत ना केवल दोनों देशों के 270 करोड़ आबादी (दुनिया की कुल आबादी का 37 प्रतिशत) का पेट भरने और उन्हें खुशहाल रखने के लिए जरूरी है बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था और व्यापार के विकास के लिए भी आवश्यक है।
चीन और भारत एक दूसरे के उत्पादकों के लिए बड़े बाजार हैं। साथ ही अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए भी ये दोनों देश सबसे बड़े और आकर्षक बाजार हैं। आप सिलिकन वैली की किसी भी स्टार्टअप कंपनी से पूछेंगे तो पता चलेगा कि चीनी बाजार में आसानी से प्रवेश करना उसका सबसे बड़ा सपना होता है। दुनिया की सबसे नामी और कामयाब कंपनियों ने चीन में सालों से फैक्ट्रियाँ लगाई हुई हैं।
अगर आज विश्व के विनिर्माण केंद्र की हैसियत से चीन का पतन हो जाए तो अमरीका और दूसरी अर्थव्यवस्थाओं को भूकंप की तरह घातक झटके लगेंगे। भारत-चीन की तरह ड्राइविंग सीट पर नहीं है लेकिन अगर ये सॉफ्टवेयर और आईटी सेक्टर में अचानक से नाकाम हो जाए तो कई अमेरिका और पश्चिमी देशों की कंपनियों के सिस्टम हिल जाएंगे।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के 2019 के आँकड़ों के अनुसार विश्व की सामूहिक अर्थव्यवस्था लगभग 90 खरब अमेरिका डॉलर की है, जिसमें चीन का योगदान 15.5 प्रतिशत है और भारत का योगदान 3.9 प्रतिशत है। विश्व की अर्थव्यवस्था के 22-23 प्रतिशत हिस्से पर दुनिया की 37 प्रतिशत आबादी की देखभाल की जिम्मेदारी है।
साथ ही, एशिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के कारण वैश्विक व्यापार के विकास में मदद मिल रही है। दोनों देश कई अफ्रीकी देशों को सस्ते ब्याज पर ऋण दे रहे हैं, विश्व के बड़े निवेशकों और कंपनियों को हर साल अरबों डॉलर का फायदा हो रहा है।
- दोनों अर्थव्यवस्थाओं की कामयाबी और नाकामी
पिछले 30-35 सालों में भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाओं का प्रदर्शन जबरदस्त रहा है। दुनिया भर में कई सालों से भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाएं सबसे तेज रफ्तार से आगे बढ़ी हैं। इनकी सबसे बड़ी कामयाबी ये है कि इन दोनों देशों ने अपनी करोड़ों जनता को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया है।
चीन और भारत में अलग-अलग स्तर पर बुनियादी ढांचे का इतना विकास हुआ है कि शहरी इलाके बिल्कुल बदल से गए हैं, विनिर्माण क्षमताओं में बहुत सुधार हुआ है, डिजिटल और ई-कॉमर्स दैनिक जीवन का एक हिस्सा बन गए हैं और मोबाइल और इंटरनेट ने ग्रामीण क्षेत्रों की जिदगी बदल दी है। इससे भी बढ़ कर, लोगों के जीवन स्तर बेहतर हुए हैं, आज आम आबादी अधिक सेहतमंद है, उनकी जेब में खर्च करने के लिए पैसे हैं।
अर्थशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि दोनों देशों में इतनी बड़ी कामयाबी का राज है मुक्त व्यापार और वैश्वीकरण। भारत में लोकतंत्र और चीन में इसके अभाव के बावजूद दोनों देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को बाहर के निवेशकों के लिए खोल दिया, प्रतियोगिता को अपनाया और तेजी से निजीकरण के रास्ते पर चल पड़े। लेकिन गरीबी और समाज में असामनता अब भी एक बड़ी चुनौती है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डेविड मॉर्गेन्थेलर हाल के अपने एक लेख में स्पष्ट करते हैं कि यूँ तो भारत और चीन की आर्थिक तरक्की वास्तव में सराहनीय है, लेकिन ये असमान भी रही है, कुछ आर्थिक क्षेत्रों में दूसरों की तुलना में अधिक तेजी से विकास हुआ है। लेकिन कुछ दूसरे क्षेत्रों में अभी काफी काम करना बाकी है।
भारत आज भी दुनिया के एक चौथाई गरीबों का घर है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, इसके 39% ग्रामीण निवासी स्वच्छता सुविधाओं से वंचित है और लगभग आधी आबादी अभी भी खुले में शौच करती है।
कोरोना वायरस की महामारी के दौरान ये साबित हो गया कि भारत में असमानता चीन से कहीं अधिक है। सरकारी स्वास्थ्य सिस्टम में कमियाँ हैं। इस महामारी ने दोनों देशों के करोड़ों लोगों को एक बार फिर से गरीबी की तरफ धकेल दिया है। इसके बावजूद ये व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि ये दो उभरती हुई दिग्गज अर्थव्यवस्थाएं आने वाले दशकों में वैश्विक अर्थव्यवस्था को कई तरीकों से बदल देंगी।
पीटरसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स के निकोलस लार्डी अपने एक लेख में लिखते हैं कि भारत और चीन दो ऐसे देश हैं जो अब भी विकासशील अर्थव्यवस्था की श्रेणी में हैं जिसका मतलब ये हुआ कि इन दोनों देशों में विकास की गुंजाइश अब भी बहुत है।
भारत का उदाहरण देते हुए वो कहते हैं कि इसका वैश्विक व्यापार में योगदान चीन की तुलना में काफी कम है। भारत अब भी दुनिया के ट्रेड को आगे बढ़ाने की क्षमता रखता है। इसके अलावा, दोनों देशों की आबादी, खास तौर से भारत की युवा आबादी इनकी एक बड़ी ताकत है। ह्वांग युंगसॉन्ग इसे दोनों देश की एक बड़ी शक्ति के रूप में देखते हैं और आग्रह करते हैं कि दोनों अर्थव्यवस्थाएं मिल कर काम करें।
- भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार का तेजी से विकास
यकीनन आपसी योगदान सालों से अब तक होता आया है। भारत और चीन के बीच सामानों के आपसी व्यापार के विकास की कहानी उत्साहजनक है। साल 2001 में इसकी लागत केवल 3.6 अरब डॉलर थी। साल 2019 में द्विपक्षीय व्यापार लगभग 90 अरब डॉलर का हो गया। चीन भारत का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है।
ये रिश्ता एक तरफा नहीं है। अगर आज भारत सामान्य दवाओं में दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है तो इसमें चीन का भी योगदान है क्योंकि सामान्य दवाओं के लिए कच्चा माल चीन से आता है। व्यापार के अलावा दोनों देशों ने एक दूसरे के यहाँ निवेश भी क्या है लेकिन अपनी क्षमता से कहीं कम। साल 1962 के युद्ध और लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल में सालों से जारी तनाव के बावजूद आपसी व्यापार बढ़ता आया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अब तक के छह साल के काल में दोनों देश एक दूसरे से और भी करीब आए हैं दोनों देशों के नेताओं ने एक दूसरे के देश के दौरे भी किए हैं और नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच दोस्ती में गर्मजोशी भी नजर आई है। भारत की तरफ से ये शिकायत रहती है कि द्विपक्षीय व्यापार में चीन का निर्यात दो-तिहाई है।
लेकिन अर्थशात्री विवेक कॉल के अनुसार इसे घाटे की तरह से नहीं देखना चाहिए। चीन से हम इसलिए सामान खरीदते हैं क्योंकि भारत के ग्राहकों को इनकी क्वॉलिटी और कीमत दोनों सही लगती हैं। इसके ठीक उलट भारत और अमरीका के साथ है। यानी अमेरिका का भारत के साथ ट्रेड डेफिसिट बड़ा है लेकिन अमेरिका ने भारत से इसकी शिकायत कभी नहीं की है।
लेकिन भारत में कुछ अर्थशास्त्री सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि वो चीन से ट्रेड बैलेंस ठीक करने के लिए इससे आयात कम करे और अपना सामान खुद बनाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस पर कई बार जोर दिया है। लेकिन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को हर साल प्रतिस्पर्धा के लिए रैंक करने वाले आईएमडी विश्व प्रतिस्पर्धा केंद्र के निदेशक और वित्त मामलों के प्रोफेसर आर्तुरो ब्रिस के अनुसार कोरोना वायरस के कारण भारत जैसे कई देश डिग्लोबलाइज़ेशन (दुनिया के दूसरे बाजारों से कटने की चाहत) की तरफ जा रहे हैं।
उनका मानना है कि ये इस समय का रुझान हो सकता है। उनका तर्क है कि अमेरिका, यूरोप और भारत जैसे देश दो-तीन सालों के बाद वैश्वीकरण की तरफ फिर से लौटेंगे।
विशेषज्ञों की आम राय ये है कि अमेरिका और चीन के बीच जारी ट्रेड वॉर में दोनों देशों को नुकसान हुआ है। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से फरवरी 2018 में शुरू की गई ये व्यापारिक लड़ाई अमेरिका को अधिक महँगी पड़ रही है।
ट्रंप की कोशिशों के बावजूद अमरीकी कंपनियों ने चीन में अपनी फैक्टरियों में ताला नहीं लगाया है। हाँ कुछ कंपनियों ने चीन प्लस वन फॉर्मूला जरूर अपनाया है, जिसका अर्थ ये है कि इन कंपनियों ने अपने उद्योग के कुछ हिस्सों को वियतनाम जैसे देशों में ले जाने का फैसला किया है।
प्रोफेसर ह्वांग युंगसॉन्ग के अनुसार भारत और चीन एक दूसरे के साथ मिल कर आगे बढ़ें, तो दोनों देशों की आबादी आर्थिक समृद्धि की तरफ बढ़ सकती हैं। इन देशों के पास टेक्नॉलॉजी और इनोवेशन दोनों मौजूद है। आने वाले कुछ सालों में 5G टेक्नॉलॉजी अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे बढ़ाएगी।
दक्षिण कोरियाई सैमसंग और एलजी और फिनिश कंपनी नोकिया का नंबर दुनिया की बड़ी 5G कंपनियों में आता है। क्वालकॉम और इंटेल 5G पेटेंट घोषित करने वाली सबसे बड़ी अमेरिकी कंपनियां हैं। शार्प और एनटीटी डोकोमो सबसे बड़ी जापानी कंपनियां हैं, लेकिन चीनी कंपनी ख्वावे के पास सबसे बड़ा घोषित 5G पोर्टफोलियो है। भारत इससे लाभ उठा सकता है।
चीन अमेरिका के मुकाबले का एक वर्ल्ड पावर बनना चाहता है। लेकिन सियासी कमेंटेटर्स कहते हैं कि इसके लिए उसे अपने पड़ोसियों से शांति बनाकर रखना जरूरी होगा।
भारत भी दुनिया के बड़े और शक्तिशाली देशों में शामिल होना चाहता है। भारत को भी अपने पड़ोसियों और अन्य देशों के साथ रिश्ते अच्छे रखने पड़ेंगे।
चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक स्थायी सदस्य है और 17 जून को भारत अगले दो साल के इसके 10 अस्थायी सदस्यों में से एक हो गया। परिषद की सदस्यता के लिए दुनिया में शांति स्थापित करने की कोशिश करना जरूरी है।
दोनों देशों की संयुक्त आर्थिक शक्ति के अलावा शायद यही एक ऐसा बड़ा प्लेटफॉर्म है जहाँ दोनों देशों की संयुक्त सियासी शक्ति का भी इजहार संभव है जिससे न सिर्फ दोनों देशों के लोगों को फायदा होगा बल्कि आने वाले कुछ सालों में विश्व को कोरोना महामारी के संकट से निकालने में भी मदद मिल सकती है।
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